आखर री औकात, पृष्ठ- 58

रोज सुणूं म्हैं
मन काळिन्दी तट
ओळूं बंसरी
०००

खुद लिख’र
खुद नै भेजूं, बांचूं-
ओळूं कागद
०००

मन जंगळ
कुदड़का करतो
ओळूं हिरण
०००

अंगां भेटा व्है
कागदां सूं नीं बुझै
ओळूं तिरस
०००

बीच मारग
करावै आंख्यां गीली
ओळूं खोड़ीली
०००

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